Sadhguru
परम गुरु जय जय राम
In December 1936, during the first Sadhna Satsang, Swami Satyanandji handpicked five of his disciples to spread faith in Ram. They took an undertaking to spread the holy name Ram. This brief but solemn ceremony was held on the banks of the holy river Ganga, above Bhim Goda at a place known as Sapt Sarover. Pujya Bade Pitaji (Sh. Bhagat Hansraj) was one of these five beloved disciples. Pujya Bade Pitaji took this life vow very seriously and vigorously. Swamiji Maharaj admired this fact in his letter dated 04/09/1957 to Bhagat Hansraj Ji. Swamiji Maharaj was both a Guru and a father. Swamiji Maharaj was highly pleased and in his letter dated 27/08/1959 from Dehradun, he lovingly addressed him as “Shri Bhagat Ji Maharaj”.
Shree Swami Satyanandji Maharaj, in his lifetime gave the responsibility of spreading Ram-Naam and authority of bestowing Deeksha to Pujya Hansraj ji Maharaj (Pujya Bade Pitaji). Following the footsteps of his master, Pujya Bade Pitaji, on the auspicious occasion of Vyas Purnima in the year 2000, passed on the responsibility of spreading Ram-Naam to Pujya Krishanji and Pujya Rekhaji. And on 31st December, 2000, he gave both Pujya Krishanji and Pujya Rekhaji the authority of bestowing Deeksha.
Letter from Swamiji Maharaj to Bade Pitaji Maharaj
आध्यात्मिक और धार्मिक सम्बन्ध अन्य सब सांसारिक सम्बन्धों की अपेक्षा पावनतम और मधुरतम माना गया है। यह इस लोक से आरम्भ हो कर पर लोक में भी बना रहता है। जिस का आत्मा जाग्रत हो, समुज्वल हो, सतेज हो, सत्यपृष्ठ हो और निर्बन्ध हो वह अपने साथियों के आत्माओं को पथ प्रदर्शन करने में समर्थ होता है। इस कारण जन्म जन्मान्तरों में भी सहायक हो कर सत्संगियों को अन्तिम ध्येय तक पहुँचा देता है। इस लये गुरु प्रदत्त आध्यात्मिक जन्म “अजामार” कहा है। उस का मरण कदापि नहीं होता। यही इस सम्बन्ध का माहात्म्य है।
ऊपर कहे सम्बन्ध में सत्यता, सरलता, अस्वार्थता, सुदृढ़ता, सजीवता, आकर्षणता और सबसे बढ़ कर आध्यात्मिकता अवश्य होनी चाहिए। अपने नैतिक जीवन में जितना उस सम्बन्ध को जीवित जागृत जा सके उतना ही वह लाभ दायक हो जाया करता है। वह सम्बन्ध परस्पर रचस्मृति में अपने नाम तथा होने की भांति सदा अंकित रहना उचित है। ऐसी उस की छाप अन्तस्थल में बिम्बित हो कि कोई भी अन्य वासना, संस्कार, भावना और कामना उसे मार्जित न कर सके तथा उस की सजीवता में ज़रा न पांव टिकाने पाए। ऐसा होने पर वह सम्बन्ध एक आरोपित सुतरु की भांति स्वयमेव विकास पाता जाता है और आत्मोन्नति फल देता रहता है।
उस स्वर्गीय, सुखद शुभ सम्बन्ध को मनन और स्मरण करने से वह बद्धमूल हो जाता है, फिर वह कम्पित कदापि नहीं होने पाता। अपने आत्मिक सम्बन्धी का समय समय पर सत्संग भी इसे प्रेम पानी से सींच कर पत्रित, पुष्पित और फलित बनाये रखने में एक उत्तम साधन समझा गया है।
सम्बन्धी और स्नेही जन वैसे तो अपने सच्चे सखा, सुहृद सम्बन्धो को समरण किये ही करते हैं परन्तु पुण्य पर्वों के सुअवसरों पर विशेष हर्ष और भाव से ह्रदय के सच्चे स्नेहोद्गार को विशेषता से प्रकट किया करते हैं। इसी आतंरिक सद्दसम्बन्ध-स्नेह से व्यास पूजा का पावन पर्व के दिन, मैं आप को इस प्रेम-पत्र द्वारा मिलता हूँ और आप को इस पर्व की हार्दिक बधाई देता हूँ
आपका मंगल कांक्षी
सत्यानन्द परम हंस